कर्म और सफलता


“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥” — भगवद गीता 2.47

“तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल में कभी नहीं। इसलिए तुम कर्मफल की इच्छा मत करो और न ही निष्कर्मता में आसक्त हो।”

“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥” — भगवद गीता 6.5

“मनुष्य को स्वयं अपने द्वारा ही उठाना चाहिए, स्वयं को नीचे नहीं गिराना चाहिए। क्योंकि मनुष्य स्वयं अपना मित्र है और स्वयं अपना शत्रु है।”

“युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥” — भगवद गीता 6.17

“जो व्यक्ति सही भोजन और विश्राम, सही कार्य और व्यवहार, और सही निद्रा और जागरण का पालन करता है, उसके लिए योग दुखों का नाश करने वाला होता है।”

“विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥” — भगवद गीता 2.59

“इन्द्रियों के विषय, उनके सेवन से वंचित रहने वाले व्यक्ति से दूर हो जाते हैं, लेकिन उनका स्वाद नहीं छूटता। परंतु, जब वह परम को देख लेता है, तब स्वाद भी छूट जाता है।”

“विद्या विनय संपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥” — भगवद गीता 5.18

“जो विद्या और विनय से युक्त हैं, वे ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल को समान दृष्टि से देखते हैं।”

“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥” — भगवद गीता 18.66

“सभी धर्मों का त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो।”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *